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Blog / 11 Dec 2019

(राष्ट्रीय मुद्दे) महिलाओं के खिलाफ हिंसा : चुनौतियां और समाधान (Violence Against Women : Challenges and Solutions)

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(राष्ट्रीय मुद्दे) महिलाओं के खिलाफ हिंसा : चुनौतियां और समाधान (Violence Against Women : Challenges and Solutions)


एंकर (Anchor): कुर्बान अली (पूर्व एडिटर, राज्य सभा टीवी)

अतिथि (Guest): डा. विक्रम सिंह (पूर्व पुलिस प्रमुख, उत्तर प्रदेश), प्रोफ़ेसर वी. राज्यलक्ष्मी (दिल्ली विश्वविद्यालय)

चर्चा में क्यों?

महिलाओं के खिलाफ बढ़ता अपराध रुकने का नाम ही नहीं ले रहा है। हाल ही में, हैदराबाद में हुए जघन्य, सामूहिक दुष्कर्म ने मानवता को एक बार फिर से शर्मसार कर दिया। इन घटनाओं पर कभी-कभार शोर भी होता है, लोग विरोध प्रकट करते हैं, मीडिया सक्रिय होती है पर अपराध कम होने की बजाय बढ़ ही रहे हैं। हैदराबाद में हुई इस घटना ने एक बार फिर देश के सामने नारी अस्मिता और उसकी सुरक्षा का प्रश्न खड़ा कर दिया है।

परिचय

महिलाओं और युवतियों पर कहीं एसिड अटैक हो रहे हैं, तो कहीं लगातार हत्याएँ-बलात्कार हो रहे हैं। इन घटनाओं से निपटने के लिए भारतीय नेतृत्व में इच्छा-शक्ति तो बढ़ी है लेकिन विडम्बना यह है कि आम नागरिक महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों को लेकर स्वाभाव से ही पुरुष वर्चस्व के पक्षधर और सामंती मनःस्थिति के कायल हैं। हमारे देश-समाज में स्त्रियों का यौन उत्पीड़न लगातार जारी है लेकिन यह बिडम्बना ही कही जायेगी कि सरकार, प्रशासन, न्यायालय, समाज और सामाजिक संस्थाओं के साथ मीडिया भी इस कुकृत्य में कमी लाने में सफल नहीं हो पायी है।

देश के हर कोने से महिलाओं के साथ दुष्कर्म, यौन प्रताड़ना, दहेज के लिये जलाया जाना, शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना और स्त्रियों की ख़रीद-फरोख्त के समाचार सुनने को मिलते रहते हैं। साथ ही, छोटे से बड़े तक हर स्तर पर असमानता और भेदभाव के चलते इसमें गिरावट के निशान कभी नहीं देखे गए। देश में, लोगों को महिलाओं के अधिकारों के बारे में पूरी जानकारी ही नहीं है और अगर जानकारी है भी तो इसका पालन पूरी गंभीरता और इच्छा शक्ति से नहीं किया जाता है। महिला सशक्तिकरण के तमाम दावों के बाद भी महिलाएँ अपने असल अधिकार से कोसों दूर हैं।

क्या कहते हैं आंकड़े?

26 जून 2018 को जारी थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन की रिपोर्ट के अनुसार निर्भया कांड के बाद देश भर में फैले आक्रोश के बीच सरकार ने इस समस्या से निपटने का संकल्प लिया था। लेकिन भारत में महिलाओं के खिलाफ हिंसा में कोई कमी नहीं आई और अब वह इस मामले में विश्व में पहले पायदान पर पहुँच गया है, जबकि 2011 में भारत चौथे पायदान पर था। 2011 में भारत के इस खराब प्रदर्शन के लिए मुख्यतः कन्या भ्रूण हत्या, नवजात बच्चियों की हत्या और मानव तस्करी जिम्मेदार थीं, जबकि 2018 का सर्वे बताता है कि भारत यौन हिंसा, सांस्कृतिक-धार्मिक कारण और मानव तस्करी इन तीन वजहों के चलते महिलाओं के लिए सबसे खतरनाक देश है। 2018 में भारत में महिलाओं और नाबालिगों के खिलाफ यौन हिंसा के मामले अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में आए। जम्मू कश्मीर के कठुआ जिले में आठ साल की बच्ची और झारखंड में मानव तस्करी के खिलाफ अभियान चलाने वाली सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ बलात्कार की ख़बरें दुनिया भर में चर्चा का विषय बनीं।

दिसंबर 2017 को इंडियास्पेंड की एक रिपोर्ट के अनुसार साल 2016 में महिलाओं के खिलाफ अपराध के प्रति घंटे औसतन 39 मामले दर्ज किए गए। साल 2007 में यह संख्या मात्र 21 थी। सरकार ने प्रतिक्रिया में बलात्कारियों के लिए सजा कड़ी करने और बच्चों के साथ बलात्कार करने वाले को मौत की सजा देने का ऐलान किया। लेकिन इंडियास्पेंड ने मई 2018 की अपनी एक रिपोर्ट में लिखा कि इन सजाओं के चलते बलात्कार के केस दर्ज किए जाने में कमी आ सकती है।

साल 2015-16 में कराए गए राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-4) में इस बात का जिक्र किया गया है कि भारत में 15-49 आयु वर्ग की 30 फीसदी महिलाओं को 15 साल की आयु से ही शारीरिक हिंसा का सामना करना पड़ा है। कुल मिलाकर NFHS-4 के अनुसार उसी आयु वर्ग की 6 फीसदी महिलाओं को उनके जीवनकाल में कम से कम एक बार यौन हिंसा का सामना करना पड़ा है।

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़े भी महिलाओं के खिलाफ आपराधिक घटनाओं में वृद्धि को स्पष्ट करते हैं। इन अपराधों में बलात्कार, घरेलू हिंसा, मारपीट, दहेज प्रताड़ना, एसिड हमला, अपहरण, मानव तस्करी, साइबर अपराध और कार्यस्थल पर उत्पीड़न आदि शामिल हैं। एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार साल 2015 में महिलाओं के खिलाफ अपराध के 3.29 लाख मामले दर्ज किए गए। 2016 में इस आंकड़े में 9,711 की बढ़ोतरी हुई और इस दौरान 3.38 लाख मामले दर्ज किए गए। इसके बाद 2017 में 3.60 लाख मामले दर्ज किये गए। साल 2015 में बलात्कार के 34,651 मामले, 2016 में बलात्कार के 38,947 मामले दर्ज किए गए। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट बताती है कि 2017 में भारत में कुल 32,559 बलात्कार हुए, जिसमें 93.1% आरोपी क़रीबी ही थे। राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो-2017 की रिपोर्ट के हिसाब से देश में सबसे ज्यादा 5562 मामले मध्यप्रदेश में दर्ज हुए। इस सूची में 3305 रेप मामलों के साथ राजस्थान दूसरे नंबर पर रहा।

भारत में दुष्कर्म के मामले और उनके साबित होने की दर

साल 2016 के एक आंकड़े के मुताबिक भारत में दुष्कर्म के रोज़ाना 106 मामले सामने आते हैं। इससे पूरी तस्वीर स्पष्ट नहीं होती, क्योंकि यहां दुष्कर्म के सभी मामलों की रपट नहीं दर्ज कराई जाती। कुछ मामले ऐसे भी होते हैं जिनमें सामाजिक पहलुओं और इंसाफ पाने के लिए जटिल न्यायिक प्रक्रिया के चलते यौन हिंसा से जुड़े सभी अपराध दर्ज नहीं हो पाते। उस पर प्रत्येक चार में से एक मामले में ही अपराध सिद्ध हो पाता है। यह बहुत निराशाजनक दर है।

डीएनए विश्लेषण जैसी तकनीक से दोषसिद्धि दर बढ़ाई जा सकती है। इसमें 2018 की एक रिपोर्ट बताती है कि दुष्कर्म से जुड़े 12,000 मामले सिर्फ इसलिए लंबित हैं, क्योंकि नमूनों की जांच के लिए पर्याप्त प्रयोगशालाएं नहीं हैं। क्या यह शर्मनाक नहीं है? एक तो अपराध सिद्ध होने की दर इतनी कमजोर है और जिन साक्ष्यों से इन अपराधियों पर शिकंजा कसा जा सकता है, उन्हें जुटाने में इतनी देरी हो रही है। अगर यह महिलाओं को इंसाफ दिलाने में लापरवाही की मिसाल नहीं है तो और क्या है?

महिला अत्याचार के खिलाफ कड़े कानून

  • घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम 2005
  • कार्यस्थल पर महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013

भारतीय दंड संहिता में महिलाओं के प्रति होने वाले अपराधों अर्थात हत्या, आत्महत्या के लिए उकसाना, दहेज़ मृत्यु, बलात्कार, अपहरण आदि को रोकने का प्रावधान है। उल्लंघन की स्थिति में गिरफ़्तारी और न्यायिक दंड व्यवस्था का जिक्र इसमें किया गया है। इसके अलावा महिलाओं को आर्थिक रूप से सशक्त बनाने के भी अनेक प्रयास किये गए हैं ताकि वे अपने विरुद्ध होने वाले अत्याचार का मुकाबला कर सकें। जैसे- पुरुष व स्त्री को समान काम के लिए समान वेतन का प्रावधान, कार्य-स्थल पर महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव से सुरक्षा और महिला कर्मचारियों के लिए अलग शौचालयों और स्नानगृहों की व्यवस्था की अनिवार्यता इत्यादि।

नाबालिग बच्चों के साथ होने वाले अपराधों के मामलों में कार्रवाई करने और उन्हें यौन उत्पीड़न, यौन शोषण और पोर्नोग्राफी जैसे गंभीर अपराधों से सुरक्षा प्रदान करने के मकसद से लैंगिक उत्पीड़न से बच्चों के संरक्षण का अधिनियम 2012 (Protection of Children from Sexual Offences Act: POCSO ACT 2012) पारित किया गया है। 18 साल से कम उम्र के नाबालिग बच्चों के साथ किया गया किसी भी तरह का यौन व्यवहार इस कानून के तहत आता है। पॉक्सो एक्ट लड़के और लड़कियों को समान रूप से सुरक्षा प्रदान करता है। वहीं इस कानून के तहत रजिस्टर मामलों की सुनवाई विशेष अदालत में होती है।

आखिर क्यों कम नहीं हो रहे हैं महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध?

न्याय में देरी: भारत में बीते एक दशक में बलात्कार के जितने भी मामले दर्ज हुए हैं उनमें केवल 12 से 20 फीसदी मामलों में सुनवाई पूरी हो पायी। बलात्कार के दर्ज मामलों की संख्या तो बढ़ रही है लेकिन सजा की दर नहीं बढ़ रही है।

खत्म होता सजा का डर: दुष्कर्म और फिर हत्या के मामलों में न्याय में देरी होने के कारण ही गुनहगारों में सजा का भय खत्म होता जा रहा है। कानून में मौत की सजा के प्रावधान होने के बाद भी बलात्कार की घटनाओं में कोई कमी नहीं दिख रही है।

अश्लील सामग्रीः दुनिया भर के समाजशास्त्री, राजनेता, कानूनविद और प्रशासनिक अधिकारी मानते हैं कि पॉर्नोग्राफी बढ़ते यौन अपराधों का एक बड़ा कारण है। टेलीकॉम कंपनियों द्वारा सस्ती दरों पर उपलब्ध कराए जा रहे डाटा का 80 फीसदी उपयोग मनोरंजन व अश्लील सामग्री देखने में हो रहा है, जबकि इसे सूचनात्मक ज्ञान बढ़ाने का आधार बताया गया था। सात साल पहले ‘निर्भया’ और अब हैदराबाद की महिला पशु चिकित्सक के साथ हुए दुष्कर्म के कारणों में एक कारण स्मार्टफोन पर उपलब्ध अश्लील फिल्में भी मानी जा रही हैं। अश्लील फिल्में देखने के बाद दुष्कर्मियों ने दुष्कर्म करना स्वीकारा है, लिहाजा हम इस पहलू को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते।

पुरुषवादी मानसिकता: देश भर के कम उम्र के लड़कों को आक्रामक और प्रभावशाली व्यवहार करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (UNFPA) इस बारे में टिप्पणी करता है कि किस तरह ऐसी ज़हरीली मर्दानगी की भावनाएं युवाओं के ज़हन में बहुत छोटी उम्र से ही बैठा दी जाती हैं। उन्हें ऐसी सामाजिक व्यवस्था का आदी बनाया जाता है, जहां पुरुष ताक़तवर और नियंत्रण रखने वाला होता है और उन्हें यह विश्वास दिलाया जाता है कि लड़कियों और महिलाओं के प्रति प्रभुत्व का व्यवहार करना ही उनकी मर्दानगी है।

प्रशासनिक उदासीनता: निर्भया कोष के आवंटन के संबंध में सरकार द्वारा दिए गए आंकड़ों के अनुसार आवंटित धनराशि में से 11 राज्यों ने एक रुपया भी खर्च नहीं किया। इन राज्यों में महाराष्ट्र, मणिपुर, मेघालय, सिक्किम, त्रिपुरा के अलावा दमन और दीव शामिल हैं। दिल्ली ने 390-90 करोड़ रुपए में से सिर्फ 19-41 करोड़ रुपए खर्च किए। उत्तर प्रदेश ने निर्भया फंड के तहत आवंटित 119 करोड़ रुपए में से सिर्फ 3-93 करोड़ रुपए खर्च किए। कर्नाटक ने 191-72 करोड़ रुपए में से 13-62 करोड़ रुपए, तेलंगाना ने 103 करोड़ रुपए में से केवल 4-19 करोड़ रुपए खर्च किए। आंध्र प्रदेश ने 20-85 करोड़ में से केवल 8-14 करोड़ रुपए, बिहार ने 22-58 करोड़ रुपये में से मात्र 7-02 करोड़ रुपए खर्च किए। संसद में पेश आंकड़ों के मुताबिक महिला एवं बाल विकास मंत्रालय से जुड़ी योजनाओं के लिये 36 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को महिला हेल्पलाइन, वन स्टाप सेंटर स्कीम सहित विभिन्न योजनाओं के लिये धन आवंटित किया गया था। दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, झारखंड, राजस्थान, पश्चिम बंगाल, दादरा नगर हवेली और गोवा जैसे राज्यों को महिला हेल्पलाइन के लिए दिए गए पैसे जस के तस पड़े हैं। वन स्टाप स्कीम के तहत बिहार, दिल्ली, कर्नाटक, लक्षद्वीप, पुडुचेरी, पश्चिम बंगाल ने एक पैसा खर्च नहीं किया।

महिलाओं के खिलाफ हिंसा से निपटने के लिए प्रभावी कदम

महिला सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए तीन ई (Es) पर अधिकाधिक जोर दिए जाने की जरूरत हैः

  • लड़कों को लैंगिक बराबरी के बारे में शिक्षा (Educating Boys on Gender Equality),
  • लड़कियों को आर्थिक और सामाजिक रूप से सशक्त बनाना (Empowering Girls Both Economically and Socially ) और
  • उन क़ानूनों का पालन किया जाना जो मौजूद हैं पर इस्तेमाल में नहीं लाए जाते (Enforcing the Laws That Exist and are not Implemented)।

महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा से निपटने का समग्र दृष्टिकोण अपराधियों के व्यवहार में बदलाव लाने के गंभीर प्रयासों के बगैर कभी पूरा नहीं हो सकता। भारत से इस बुराई को मिटाने के लिए महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा को व्यापक सूचना शिक्षा-संचार के जरिए रोकने पर विचार किया जा सकता है। इस प्रकार के अभियान मौजूदा कानूनी प्रावधानों जैसे- घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम, 2005, कार्य-स्थल पर महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013 और भारतीय दंड संहिता की धारा 354।, 354ठ, 354ब् और 354क् का अनुपूरक हो सकते हैं और उन्हें पूर्णता प्रदान कर सकते हैं।

ये सभी कानून यौन प्रताड़ना और पीछा करने जैसे दुर्व्यवहार के अन्य स्वरूपों से जुड़े हैं। हालांकि ये कानून तभी प्रभावी हो सकते हैं, जब महिलाएं आगे आएं और दोषियों के खिलाफ मामले दर्ज कराएं, जो कभी-कभार ही होता है। इस तरह, आमतौर पर बदनामी के डर से काफी बड़ी संख्या में ऐसे मामले दर्ज ही नहीं हो पाते, खासकर तब जब पीड़िता को अपने पति, परिवार के सदस्य या किसी अन्य परिचित के खिलाफ शिकायत दर्ज करानी हो।

2013 में, मुम्बई पुलिस ने ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के साथ साझेदारी करके मुम्बई को महिलाओं और बच्चों के लिए सुरक्षित बनाने के अभियान के तहत एक विज्ञापन अभियान की शुरूआत की। इसके तहत महिलाओं को आगे आने और महाराष्ट्र पुलिस की हेल्पलाइन 103 पर शिकायत दर्ज कराने के लिए प्रोत्साहित किया गया। उसी साल ओ एंड एम ने एक अन्य अभियान शुरू किया, जिसमें पुलिस ने पुरुषों को चेतावनी दी कि यदि वे महिलाओं के साथ किसी किस्म की हिंसा करेंगे, तो उन्हें उसका अंजाम भुगतना पड़ सकता है। यदि इस तरह के अभियानों को देश भर में बढ़ावा दिया जाये, तो ये अपराध के बाद पीड़िता को सदमें से उबारने, कानून प्रवर्तन एजंसियों की मदद करने और अपराध की रोकथाम में मददगार हो सकता है।

भारत में महिलाओं पर हमलावरों की मानसिकता का अध्ययन करने, समझने और उसमें बदलाव लाने का प्रयास बहुत कम होते हैं। महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा से निपटने का समग्र दृष्टिकोण अपराधियों के व्यवहार में बदलाव लाने के गंभीर प्रयासों के बगैर कभी पूरा नहीं हो सकता।

आगे की राह

यद्यपि सरकार ने महिलाओं की सुरक्षा के लिए कड़े कानून तो बना रहे हैं फिर भी उनकी सुरक्षा के लिए अन्य सुझावों को अमल में लाया जा सकता है-

  • महिला सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार को प्रयास करना चाहिए कि मोबाइल कंपनियां सभी मोबाइल फोन में अब पैनिक बटन अनिवार्य करें ताकि महिलाएं इस बटन को दबाकर तुरन्त मदद मांग सकें, साथ ही ये ध्यान रखा जाए कि सही समय पर उन तक मदद पहुंचे। किसी भी तरह की आपातकालीन स्थिति में स्थानीय पुलिस तुरन्त महिला की मदद के लिए पहुंचे। हिमाचल प्रदेश और नागालैंड राज्यों में ये पहले ही शुरू हो चुका है, आज इसे सभी राज्यों एवं केन्द्र शासित प्रदेशों में शुरू किया जाना चाहिए।
  • सरकार प्रत्येक चिह्नित शहर में ऐसे स्थानों की पहचान करे जहां अपराध ज्यादा होते हैं। इन स्थानों पर सीसीटीवी की निगरानी बढ़ाई जानी चाहिए। प्रत्येक शहरों में स्व-चालित नम्बर प्लेट रीडिंग (एएनपीआर) और ड्रोन आधारित निगरानी भी करने की व्यवस्था की जानी चाहिए।
  • महिला पुलिसकर्मियों के द्वारा गश्त बढ़ाई जानी चाहिए। हर पुलिस स्टेशन में महिला सहायता डेस्क की स्थापना की जाए, इस पर एक प्रशिक्षित काउंसलर की सुविधा भी हो। फिलहाल जो आशा ज्योति केन्द्र या भरोसा केन्द्र चल रहे हैं उनमें विस्तार किया जाए। बसों में कैमरों और सभी सुरक्षा उपायों को लागू किया जाए। महिलाओं के लिए शौचालयों की स्थापना हो। महिला सुरक्षा और लैंगिक संवेदनशीलता पर सामाजिक जागरूकता कार्यक्रम कराए जाएं।
  • प्रत्येक ऑफिस में एक यौन उत्पीड़न शिकायत समिति बनाना उस ऑफ़िस के मालिक का कर्तव्य है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी एक दिशा-निर्देश के मुताबिक यह भी जरूरी है कि समिति का नेतृत्व एक महिला करे और सदस्यों के तौर पर उसमें पचास फीसदी महिलाएं ही शामिल हों। साथ ही, समिति के सदस्यों में से एक महिला कल्याण समूह से भी हो। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप एक स्थायी कर्मचारी हैं या नहीं।
  • वास्तव में महिला सुरक्षा के लिए खुद महिला को भी सक्षम होना होगा। हिम्मत, वीरता और साहस को उसे अपने महत्वपूर्ण गुण बनाना होगा।
  • बलात्कार की घटनाओं में कुछ हद तक कमी धीरे-धीरे लाई जा सकती है यदि हम महिला सशक्तिकरण के साथ-साथ पुरुष मानवीयकरण के लक्ष्य को भी सामने रखें। घर में पिता-पत्नी और बेटी का, और बेटा-मां और बहन का सम्मान करें। बाहर किसी भी स्त्री को कोई भी पुरुष इंसान की तरह मान कर सम्मान करें।